Thursday, November 16, 2023

दबे पाँव जिंदगी चलती रही

दबे पाँव जिंदगी चलती रही ,
साँस इत्र -उत्र बिखरती रही 

 स्याही  और कलम रेंगती रही 
 रात भर बाँट टटोलती रही ,
ना आह निकली ,ना कराह 
शब्दों के जंगल में ,
खाली पायल झुठा नर्तन करती रही । 

दबे पाँव जिंदगी चलती रही.… 

राह ढूंढ लेती मोतियाँ ,
मगर ?
शिप हर पल अपनी शक्ल बदलती रही ,
मन के सरहदों में जाने ,
और कितने? 
सरहदें खिंचेगी हसरतें । 
 सिरहाने   मे  बंद कमरा ,
स्वप्न बुनता रहा ,
और चुपके -चुपके 
भाग्य चिमनी चलाती रही 

 दबे पाँव जिंदगी चलती रही.… 

कुछ गुजर  कर  भी '
सुना हैं --लौट आतें हैं ,
दस्तकों पे नक्स  सजा जातें हैं ,

यें कैसा ? ख़ौफ हैं 
जो गुजरता भी नही ,
चीखता भी नही ,
बस आँखों में काज़ल खरोंचता रहता हैं 

 दबे पाँव जिंदगी चलती रही.…

आँखें सोंचकर उनका दर्द  भी ,

आँसुओं की डली भर्ती रही ,
और बे-अदब ,बे- ख़बर 
दम भर  राहती साँस भरता रहा । 

मोम की तरह पिखलना ,
काँच की तरह टूटना ,
ये अदा अब बंजाड़ें हैं ,
सागर की तरह हिलोरना ,
कुंकुम की तरह मिलना ,
ये अन्दांज अब घराना हैं ,
तोड़ने  वालें तोड़तें  रहे ,
और पुरवा ब्यार भी ,

सनसनाती कुदाल चलाती रही ॥  

दबे पाँव जिंदगी चलती रही
साँस इत्र -उत्र बिखरती रही 
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जब पिता खुश होकर शाबाशी देंतें हैं ,
जब दूसरों के चेहेरें पर मुश्कान सी खील  जाती हैं ,
जब माँ की लोरी सुनकर मासूम सो जातें हैं ,
बस इन्ही राहों से चल कर भगवान  मिल जातें हैं. 

ये कैसे रिश्तें नातें हैं



ये कैसे रिश्तें नातें हैं
 कभी तो कितने अपने   ,और कभी पराएँ हो जातें हैं 
चाह  कर भी इन्हें हैं  मुश्किल   भुलाना 
क्यों दिल के अपने  इतनी तकलीफ
 रूह तक दस्तक दे जातें हैं 
 ये कैसे रिश्तें नातें हैं

मैं मेरा कोरा मन युही नही स्याही स्याही करती 
कुछ तो चलती हैं रिश्तों की  पतझड़ हवाएं ,
फिर तो लिख ही जाता हैं दस्तावेज दिल के कटघेरे  में ,

कब तक मुझसे लेतें रहेंगे ,,
क्या कभी उतरेगा मेरी छत पे भी
कोई  पोटली बाबा 

मैं हु इक हवेली जैसी ,
जिसके खाब   का  दर  बंद हैं 
जीना हैं इस लियें जी रही हूँ ,
वरना अब कहा पायलों में छम छम हैं 
   
  ये हर तरफ से खिचातनी हैं 
गनीमत हैं की अभी तलक 
साँस लेने पे नही कोई पाबन्दी हैं 
 ये कैसे रिश्तें नातें हैं

  न ये मेरा घर हैं जहाँ मैं कली से बनी फूल पलाश की 
  न वो मेरा घर हैं जहाँ मैं गयी चुटकी भर लाल रंग से 
  तो बता जरा वाटिका छबी नन्द लाल   की  
  कौन से हित खातिर तुने रचा मुझे धरती की गोद में 

 मैं मेरे रंग से जीवन सजा लूं ,
   तो कसम राम जी की 
   धरती में कोहराम हैं 
   मैं ज्यादा तो नही मांगती 
   बस    दो टूक    ही सही 
    लेकिन मुझको मेरा ही आसमान मिलें 

  इक सवाल सी हैं  कैलाश नगर के दरबार में  
  ना वो बाबुल का हो ,ना साजन  का  
इक घर ऐसा हो जिसके दरवाजें पे लिखा मेरा नाम हो 
   


   

Tuesday, November 7, 2023

इक शहर तो हो अपना सा



उमिंदों के काफिलें बसाकर ख्वाबों के गाँव में ,




वो कहतें हैं की अब ये शहर अपना नही ,

जिस शहर की गलियों ने उनको जीने की राह दी ,

उसे छोड़ जाने से बंजाड़े का दिल धड़का नही,

खुश होकर तह दर सजाई अमर लताओं की डालें,

बनफूल से भी ज्यादा खिली

घर के कोने कोने में बसी अटखेलियाँ

और रही हरदम ही बिखरती मदहोशियाँ

अभी थोड़ा वक्त ही चला था ,

नयें विशातों के सिरहाने से

की !!

शहर के चौराहें पे मचां रहा कोई  शोर था ,


हवलें- हवलें आ रही थी आवाजें,
चारो तरफ भीड़ था बड़ा भीड़ था 

लेकिन क्या खूब नजारा था …। 

शहर के चौराहें पर शहर ही मचां रहा शोर था ,

और जोड़ -जोड़ से बंजlड़ें को लगा रहा आवाज़ था

कब तक खानाबदोस रहेगी ,

तेरी दरो दिवार की तस्वीरें ,

किसी गली ,किसी मोड़ पे  या दूर किसी चौराहें पे ,

हक हो अपनेपन का ,

अरे किसी शहर से तेरा भी नाता हो 

कह सके तू भी 

अपनी पनाहों के  छाँव से ,

ये शहर मेरा अपना हैं कोई बेगाना नही ,

कुछ यहाँ मिला हैं ।कुछ वहाँ  मिलेगा …. 

जाने क्या कुछ - कहाँ  छूटता रहेगा ?

उफ ये कैसी बिरहन सी बात चली हैं ,

छोड़ों  भी ये कम ज्यादा  ।और ज्यादा  पाने की लालसा ,

हो थोडा सा या ज्यादा … 

बस लेकिन कम से कम ,

इक शहर तो हो अपना सा …. 

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Friday, November 3, 2023

'मेरे पंछी मन



उड़  उड़ के मेरे पंछी मन तू क्या खोजता है,

हर तरफ शोर है ,किन सुकूनी   संतों की तुझे तलाश है,
वो जो भाव हुआ करते थे गोधुलि की बेला में ,
वो जो भाव उभरते थे धरती और अम्बर  के मिलन से,
वो जो घोसोलों से मीठी धुन भोर का मुख निहारती थी,
" मेरे बवाले पंछी मन" 
 उसे तो शहरीकरण रूपी दानव ने अपना आहार बना लिया है।

अब तो सुकून भरी पलकों से भी दूर भागते हैं लोग ,

नींद आये या न आये-
 कुछ तो  थोरी सी मदिरा पीकर सो जाते हैं
 और कुछ सोने की कोशिश में सुबह तलक झप्की भरते हैं
जाने किस मृग तृष्णा की खोज   में सब दौर रहे हैं ?
कौन समझेगा किसने समझा है ...

देह रूपी दुकान का सांसे  पतवार हैं,
कब  मिट्टी हो जाएँ क्या ऐतबार   है।।

 क्यों है फैला बेरुखी का आलम ,

 क्यों है रिश्तों में टूटी पगडंडी सी  हालत ,
 क्यों मन में बोझ लिए जीयें जा रहे हैं लोग ,
 थोड़ी तो नमी से  खुद को नवाजों फकीरों ....
 है ये दुनिया बड़ी निराली ........
पहले खुद में निरालापन , तो  लायों फकीरों

वो जो  आँखों से आँखें  इश्क की हर बात बयाँ करती थी,

         उफ वो नशेमन "
              वो शानो पर बीती फुरकतों में रातें ........

         अब तो पहली नजर से पहले ,,  काया से काया मिला करती हैं
              जाने ये कौन हैं , ये किसकी दास्तां  हैं ???

          कैसे इनको   तू - पंछी मन इनकी पहचान  से मिलवायेगा

  क्या फिर से धरती पर  राधारमण आलिंगन  रास रचाय्रेगें ।   


वो जो पत्तों पर ओस की चमक है ,

वो जो बारिश में धूलि फूलों में रंगत है
 वो जो प्यार में पिघलती पत्थरों की पनघट है

वो जो दूर से लचकती  अमोलियों  की कमर है
ये जो चूड़ियों की खनक में महकती  कशक है

ये जो लोरियों में निखरती बचपन से जवानी का सफ़र है
ये जो  पथराई आँखों को सूद से मूल स्वरित   है

ये जो माहवार से सजे पाँव पर झुका  पुरुषसार्थ का अहम हैं  

  ये  जो स्वार्थहीन दोस्ती का छलकता सागर है

सुनो ऐ फकीरों ये सब तुम्हारी ही  विरासतें हैं 

यही है वो दौलत बासिंदों ,
जिन  से इक इक बूंद  जिन्दगी की सागर बना करती है
तो अब चुन लो मोतियाँ विरासतों से ,                                             

  और बाटो दोनों हाथों से ये विरासती मोतियाँ पुरे जहाँ में 


जितना बाटोगे उस से दुगना पायोगे फकीरों ............
 हर कण हर पल बस होगा लचीला ,लचीला

और उमरती घुमारती रहेगी

  तेरे पंछी मन में  जवां जिन्दगी की बदलियाँ ...।।



अब तो मेरे पंछी मन मेरे पास लौट आओ 

बनने दो राहतों के सिलवटें मेरे भी दरीचों पर ......
फिर कभी और चुन लाना शब्दों के जंगलों से  
मुहबोली कविता की सहेली .........
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Friday, September 1, 2023

मुहब्बत करना !


रखना दिल में  नमाज़ी  नियत 
तो  
मुहब्बत करना !
होना खुद से जुदा 
तो 
मुहब्बत करना !

हो बरगद जैसी छावनी 
तो 
मुहब्बत करना !

शिदत हो गर दिया बाती जैसा ,
 तो 
मुहब्बत करना!
मुस्कानों में हो  नमीं पनघट की ,
तो 
मुहब्बत करना !

तन में हो खुशबूँ  गंधक की 
तो
 मुहब्बत करना!

 गर बाँच सकों कल्माई ऑंखें 
तो 
मुहब्बत करना !

बना सको जिगर  शिखर में मंदिर 
तो 
मुहब्बत करना !

हो जबां अशिर्बादी 
तो 
मुहब्बत करना!

हो रूह तक चौधवी   चमक 
तो 
मुहब्बत करना !

चल सकों राह से राह तक 
तो
 मुहब्बत करना !

जो समां सके इक ग्रन्थ में 
ये वो सज्दां नही ,

मिल सके अंत छितीज 
ये वो त्रिलोक नही 
हो हर मन  राधा रमण 
करें हर दिल बस ऐसी ही 
पाकिजी मुहब्बत 
हर कही  हर तरफ .......






मैं और मेरी नजर



मैं और मेरी नजर ,
 गोंधुली में
जब भी टहलतें हैं
अक्सर आसमान से बाँतें करतें हैं
गूँज कर पवित्र  प्राथनायें ,
पहुँचती तो होंगी त्रिकालदर्शि तक ?
जो आज धुप में घुलते -घुलतें 
अस्त हो  जायेंगा। 
कल वही फुंटकर पहाड़ियों से 
किरणों में त्वरित हो 
 जिवन जोत जलायेगा !

मैं और मेरी नजर ,
अक्सर आसमान से बाँतें करतें हैं


जो हैं रच चूका ,
वो इतिहास बना जायेंगा 
लेकिन ,कर्म कि आँग में तप कर ,
 क्या रचनाकार कि रचना बदल   जायेंगी  
और  इतिहास  के  हर शब्द में,
 स्वर्णिम आकृति  जड़  जायेंगी 

मैं और मेरी नजर ,
अक्सर आसमान से बाँतें करतें हैं

इन आँखों का क्या हैं 
 बाँट टटोलती हैं ,
टटोलती रहेँगी 
क़ोई राहगीर किसी दिन तो ,
टटोलती आँखों में ,
चंद और साँसे टपका जायेंगा  
मैं और मेरी नजर ,
अक्सर आसमान से बाँतें करतें हैं!!

रचनाकार आगाह करता और सुनाता हैं 
जो भी हैं अवस्था 
उसमें ही अनुकूल बने रहना
 जिवन यथार्थ बनता हैं 

  सोंच कि अधर पर  भी,
होता अगर इक तिल जैसा 
तो अच्छी सोंच को नजर न लगती 
और बंद हो जाता आवागमन 
बुरी सोंच का ,

 टहनिओं से गिरती संभलती ,
ओस कि बूँदों में भी ,
कितना असीम सामर्थ हैं,
बिन सिकायत धुप से  
छुपन छुपायी खेलती  हैं 
 और  ठीक विपरीत 
सरे आम इंसान विचरता हैं 
भूखें पेट के चिमनी  में ,
इक रोटी डाल  न पाया 
 और  रामायण दान से 

दोष मिटाना  चाहा 
ईर्ष्या , द्वेष कुट निति 
ह्रदय का नर्तन भंगकर 
गुरु दान के घोड़े चढ़े ,
मूर्खं कि भी इक ही 
अभिलाषा। . 
दान, धर्म से बैकुंड पाना !

राह उस केदारनाथ कि 
निर्धन के घर दीप जलाना 
फिर चाहें जाओ न जाओं 
कासी ,मक्का मदीना   

मैं और मेरी नजर ,
अक्सर आसमान से बाँतें करतें हैं
 इंसान को इंसान से ,
पहचान  भर हो जायें 
तो फिर से फरिश्तों कि 
पालकी धरती पर उतर जायें