Friday, September 1, 2023

मुहब्बत करना !


रखना दिल में  नमाज़ी  नियत 
तो  
मुहब्बत करना !
होना खुद से जुदा 
तो 
मुहब्बत करना !

हो बरगद जैसी छावनी 
तो 
मुहब्बत करना !

शिदत हो गर दिया बाती जैसा ,
 तो 
मुहब्बत करना!
मुस्कानों में हो  नमीं पनघट की ,
तो 
मुहब्बत करना !

तन में हो खुशबूँ  गंधक की 
तो
 मुहब्बत करना!

 गर बाँच सकों कल्माई ऑंखें 
तो 
मुहब्बत करना !

बना सको जिगर  शिखर में मंदिर 
तो 
मुहब्बत करना !

हो जबां अशिर्बादी 
तो 
मुहब्बत करना!

हो रूह तक चौधवी   चमक 
तो 
मुहब्बत करना !

चल सकों राह से राह तक 
तो
 मुहब्बत करना !

जो समां सके इक ग्रन्थ में 
ये वो सज्दां नही ,

मिल सके अंत छितीज 
ये वो त्रिलोक नही 
हो हर मन  राधा रमण 
करें हर दिल बस ऐसी ही 
पाकिजी मुहब्बत 
हर कही  हर तरफ .......






मैं और मेरी नजर



मैं और मेरी नजर ,
 गोंधुली में
जब भी टहलतें हैं
अक्सर आसमान से बाँतें करतें हैं
गूँज कर पवित्र  प्राथनायें ,
पहुँचती तो होंगी त्रिकालदर्शि तक ?
जो आज धुप में घुलते -घुलतें 
अस्त हो  जायेंगा। 
कल वही फुंटकर पहाड़ियों से 
किरणों में त्वरित हो 
 जिवन जोत जलायेगा !

मैं और मेरी नजर ,
अक्सर आसमान से बाँतें करतें हैं


जो हैं रच चूका ,
वो इतिहास बना जायेंगा 
लेकिन ,कर्म कि आँग में तप कर ,
 क्या रचनाकार कि रचना बदल   जायेंगी  
और  इतिहास  के  हर शब्द में,
 स्वर्णिम आकृति  जड़  जायेंगी 

मैं और मेरी नजर ,
अक्सर आसमान से बाँतें करतें हैं

इन आँखों का क्या हैं 
 बाँट टटोलती हैं ,
टटोलती रहेँगी 
क़ोई राहगीर किसी दिन तो ,
टटोलती आँखों में ,
चंद और साँसे टपका जायेंगा  
मैं और मेरी नजर ,
अक्सर आसमान से बाँतें करतें हैं!!

रचनाकार आगाह करता और सुनाता हैं 
जो भी हैं अवस्था 
उसमें ही अनुकूल बने रहना
 जिवन यथार्थ बनता हैं 

  सोंच कि अधर पर  भी,
होता अगर इक तिल जैसा 
तो अच्छी सोंच को नजर न लगती 
और बंद हो जाता आवागमन 
बुरी सोंच का ,

 टहनिओं से गिरती संभलती ,
ओस कि बूँदों में भी ,
कितना असीम सामर्थ हैं,
बिन सिकायत धुप से  
छुपन छुपायी खेलती  हैं 
 और  ठीक विपरीत 
सरे आम इंसान विचरता हैं 
भूखें पेट के चिमनी  में ,
इक रोटी डाल  न पाया 
 और  रामायण दान से 

दोष मिटाना  चाहा 
ईर्ष्या , द्वेष कुट निति 
ह्रदय का नर्तन भंगकर 
गुरु दान के घोड़े चढ़े ,
मूर्खं कि भी इक ही 
अभिलाषा। . 
दान, धर्म से बैकुंड पाना !

राह उस केदारनाथ कि 
निर्धन के घर दीप जलाना 
फिर चाहें जाओ न जाओं 
कासी ,मक्का मदीना   

मैं और मेरी नजर ,
अक्सर आसमान से बाँतें करतें हैं
 इंसान को इंसान से ,
पहचान  भर हो जायें 
तो फिर से फरिश्तों कि 
पालकी धरती पर उतर जायें