ये कैसे रिश्तें नातें हैं
कभी तो कितने अपने ,और कभी पराएँ हो जातें हैं
चाह कर भी इन्हें हैं मुश्किल भुलाना
क्यों दिल के अपने इतनी तकलीफ
रूह तक दस्तक दे जातें हैं
ये कैसे रिश्तें नातें हैं
मैं मेरा कोरा मन युही नही स्याही स्याही करती
कुछ तो चलती हैं रिश्तों की पतझड़ हवाएं ,
फिर तो लिख ही जाता हैं दस्तावेज दिल के कटघेरे में ,
कब तक मुझसे लेतें रहेंगे ,,
क्या कभी उतरेगा मेरी छत पे भी
कोई पोटली बाबा
मैं हु इक हवेली जैसी ,
जिसके खाब का दर बंद हैं
जीना हैं इस लियें जी रही हूँ ,
वरना अब कहा पायलों में छम छम हैं
ये हर तरफ से खिचातनी हैं
गनीमत हैं की अभी तलक
साँस लेने पे नही कोई पाबन्दी हैं
ये कैसे रिश्तें नातें हैं
न ये मेरा घर हैं जहाँ मैं कली से बनी फूल पलाश की
न वो मेरा घर हैं जहाँ मैं गयी चुटकी भर लाल रंग से
तो बता जरा वाटिका छबी नन्द लाल की
कौन से हित खातिर तुने रचा मुझे धरती की गोद में
मैं मेरे रंग से जीवन सजा लूं ,
तो कसम राम जी की
धरती में कोहराम हैं
मैं ज्यादा तो नही मांगती
बस दो टूक ही सही
लेकिन मुझको मेरा ही आसमान मिलें
इक सवाल सी हैं कैलाश नगर के दरबार में
ना वो बाबुल का हो ,ना साजन का
इक घर ऐसा हो जिसके दरवाजें पे लिखा मेरा नाम हो
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