दबे पाँव जिंदगी चलती रही ,
साँस इत्र -उत्र बिखरती रही
स्याही और कलम रेंगती रही
रात भर बाँट टटोलती रही ,
ना आह निकली ,ना कराह
शब्दों के जंगल में ,
खाली पायल झुठा नर्तन करती रही ।
दबे पाँव जिंदगी चलती रही.…
राह ढूंढ लेती मोतियाँ ,
मगर ?
शिप हर पल अपनी शक्ल बदलती रही ,
मन के सरहदों में जाने ,
और कितने?
सरहदें खिंचेगी हसरतें ।
सिरहाने मे बंद कमरा ,
स्वप्न बुनता रहा ,
और चुपके -चुपके
भाग्य चिमनी चलाती रही
दबे पाँव जिंदगी चलती रही.…
कुछ गुजर कर भी '
सुना हैं --लौट आतें हैं ,
दस्तकों पे नक्स सजा जातें हैं ,
यें कैसा ? ख़ौफ हैं
जो गुजरता भी नही ,
चीखता भी नही ,
बस आँखों में काज़ल खरोंचता रहता हैं
दबे पाँव जिंदगी चलती रही.…
आँखें सोंचकर उनका दर्द भी ,
आँसुओं की डली भर्ती रही ,
और बे-अदब ,बे- ख़बर
दम भर राहती साँस भरता रहा ।
मोम की तरह पिखलना ,
काँच की तरह टूटना ,
ये अदा अब बंजाड़ें हैं ,
सागर की तरह हिलोरना ,
कुंकुम की तरह मिलना ,
ये अन्दांज अब घराना हैं ,
तोड़ने वालें तोड़तें रहे ,
और पुरवा ब्यार भी ,
सनसनाती कुदाल चलाती रही ॥
दबे पाँव जिंदगी चलती रही
साँस इत्र -उत्र बिखरती रही
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जिंदगी को चलते रहना चाहिए। चुप्पी व चीख के बीच भी संयत भाव से चलना ही इसका फलसफा है।
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